जगदीश सुथार’त्रिपासा’
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ध्वज धार्मिक,सांस्कृतिक,सामाजिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व
को दर्शाते चले आ रहे है।इसलिए अतीत से वर्तमान तक हमारे प्रेरणात्मक स्त्रोत माने
जाते है।भारत
का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा भी इसी क्रम में ’सत्य मेव जयते’ राष्ट्रीयता का प्रतीक है।
ध्वज के माध्यम से किसी धर्म-संस्कृति,सभ्यता अथवा राष्ट्र की पहचान सुनिश्चित हो जाती है।
वह धर्म-संस्कृति समुदाय या राष्ट्र अपनी आस्था,श्रद्धा,सम्मान,सद्भाव आत्मीयता के साथ पूर्णरूपेन
ध्वज को समर्पित रहता है।
ध्वज जो झंडा,पताका एवं निशान सााहिब के
नाम से जाना जाता है,की परम्परा पुरातन काल से ही चली आ रही हैै। प्राचीन शास्त्रों में कहीं कहीं ध्वज
को केतु के नाम से भी सम्बोधन मिलता है जैसे श्वेतकेतु,सहस्त्रकेतु इत्यादी।
वैदिक युग में किसी धार्मिक
आयोजन, यज्ञ
अथवा युध्द के समय हाथी-घोडे अथवा रथ के ऊपर आगमन के अवसरों पर विभिन्न ध्वज का प्रयोग
आमतौर पर किया जाता रहा है।
ध्वज प्रायः किसी बांस, सीधी बल्ली अथवा धातु पाइप में लगाये जाते हैं जिन्हें ’ध्वज दंड कहा जाता है सामाजिक
धार्मिक आस्था के प्रतीक स्वरूप प्रयुक्त किये जाने वाले ध्वजों पर विभिन्न प्रकार की मांगलिक आकृतियां उकेरी जाती
हैं जैसे -स्वास्तिक, सूर्य,चांद-तारा,खण्डा, ऊँ,एक ओंकार
इत्यादि।
प्राचीन समय में प्रत्येक राज्य के राजा का अपना अलग ध्वज होता था और उसके अतिरिक्त
युद्धों के समय कहीं कहीं प्रत्येक युद्धनायक का भी आधिकारिक चिन्ह ध्वज अलग से होता
था,जिससे योद्धा
अथवा सेना नायक की विशेष पहचान हो जाया करती
थी।
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