रमेश सुथार पत्रकार सिरोही
पत्रकार को सच लिखने की कीमत चुकानी पडेगी और जोखिम तो उठाने हीे होंगे। यह सच और झूंठ की मुठभेड है जो अनादिकाल से चली आ रही है तथा अपने अपने मोर्चे पर बोलकर अथवा लिखकर हर दौर में ईसा मसीह, सुकरात, लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, फै ज अहमद फैज, ज्योपाल सात्र्र जैसे कलम के सिपाही निरन्तर अपनी लेखनी की ककीमत चुकाते आ रहे है और नई पीढी का मार्ग प्रशस्त करते जा रहे है।
जोखिम तो उठाने हीं होंगे
कलम के सिपाही को मैं इस दुनिया का सबसे अधिक ईमानदार और अनिवार्य व्यक्ति तथा विचार मानता हुं। क्योंकि वह सबके सुख-दु:ख लिखता हैै लेकिन अपनी कहानी कभी नही कहता। वह राष्ट्र की संस्क्रति और समाज बनाता है और इतिहास तथा समय के पैमाने को बदलता जाता हैं। ज्ञान की वंश परम्परा में साहित्यकार और पत्रकार दो जुडवां भाई है। जहां साहित्यकार शाश्वत की खोज करता है वहां पत्रकार वर्तमान का अन्वेषण करता है सूचना और प्रोद्योगिकी के युग से पहले भी वह स्वतंत्रता सेनानियो की जय बोलता ता तो आज भी वह दलित और पीडीत अवाम के साथ ही जीता है। यही कारण है कि शब्द कभी मरता नहीं है और शब्द स्वयं अपना रास्ता बनाता है। साहित्यकार और पत्रकार की जुगलबंदी अनंतकाल से आततायी और शोषण की व्यवस्था से लडती-मरती आई है तथा सामाजिक ,आर्थिक,सांस्क्रतिक और राजनैतिक असहमतियो के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की भूमिका अदा करती है। हमें याद है कि मनुष्य समाज और समय के कुरूक्षैत्र में जिस शब्द और वाणी का आधर सत्य और अहिंसा रही है वही कलम विश्वसनीय क्रांतिकारी तथा पतिवर्तन धर्मा मानी गई है। यानि कि उपनिवेशवाद से लेकर आज पूंजीवाद तक तानाशाही और लोकतंत्र में सच्ची कलम विपक्ष की आवाज बनकर ही चली है और दुनिया में आदि सभी देशो में दूसरे विश्वयुध्द के बाद जो क्रांति और बदलाव आया है उसमें आम जनता की आवाज को आगे बढाने का काम साहित्यकारो तथा पत्रकारो ने हीं किया है। लेकिन यूरोप में ओद्योगिक क्र ांति के बाद जब से छापाखना स्वतंत्रता का यह सूचना अभियान मनुष्य समाज के विकास का मुख्य हथियार बन गया है। हम भारत के संदर्भ में देखे तो पत्रकारिता का उदय अंग्रे-जो के भारत आने के पुर्व मुगलकाल में ही हो गया था। पहले प्रचार-प्रसार सीमित था लेकिन जैसे-जैसे तकनीक का और कागज का आविष्कार हुआ हमारे लोक जीवन में शब्द और वाणी के प्रभाव दलो,दिशाओ में फैलने लगे। साहित्य की इन सीमाओ को तोडने का काम अब पत्रकारिता कर रही है तथा सूचना और प्रोद्योगिकी की इस २१वीं में पत्रकारिता ने पारदर्शिता के नए रास्ते खेल दिए है। हमारी १८५७ की क्रांति में इस सूचना और समाचार की ताकत ने जबर्दस्त काम किया है लेकिन आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडीया ने देश और समाज में जो अग्रणी हस्तक्षेप और सवाल खडे किए है उसका परिणाम है कि मीडीया अब विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बाद चौथे स्तम्भ के रूप में खबरपालिका के रूप में स्थापित हो गया है। स्थितियों में बदलाव इस तरह से आया है कि पहले जहां सूचना का खुलासा करने वालो को भेदिया कहकर मार दिया जाता था, जहर का प्याला पिला दिया जाता था, हाथी के पांवो से कुचल दिया जाता था या फिर तोप के मुँह पर बांधकर उडा दिया जाता था वहां आज यह काम लोकतंत्र में राजनैतिक और आर्थिक गिरोहो तथा माफियाओं के द्वारा किया जाता है। यानि कि अपने हितो के खिलाफ बोलने और लिखने वाले को रास्ते का काँटा समझकर साफ किया जाता है। समझने की बात यह है कि आज जब राजनीती का अपराधीकरण हो गया है, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जिस तरह सत्ता-व्यवस्था में घुस गया है तथा आर्थिक शक्तियां जिस तरह समानान्तर सरकार जैसी संगठित बन गई है तब से सच की खोज करने वाला पत्रकार इन समाज विरोधी ताकतो कें निशाने पर आ गया है। आजादी के बाद और लोकतंत्र के विकास में जब पत्रकारिता और मीडीया एक सूचना उद्योग का रूप ले चुके है तब से शग्द और सूचना का सत्या ही सबसे अधिक हिंसा और अपराध का शिकार हो रहा है। आज भारत में ही विभिन्न भाषाओ की कोई ८० हजार पत्र-पत्रिकाएं आ रही हैं और कोई७०० से अधिक टीवी चैनल रात-दिन चल रहे है तब राजनैतिक और आर्थिक ताकतो की सारी शक्ति मीडीया को अपने निमंत्रण में रखने की हो रही है। यह शक्तिया साम,दाम दण्ड व भेद से मीडीया को अपने सहयोग में रखती है और अनावश्यक,बेसुरे,बाधक और खोजी पत्रकारो और लेखको को रास्ते अथवा मुनाफे की बाधा समझ कर मारती-डराती रहती है। शब्द और सत्य पर आक्रमण की यह कहानी १९९० के भूमंडलीकरण और खूले बाजार की अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक सक्रिय हो गई है। तानाशाही और अधिनाकवादी शासन व्यवस्थाओ में यह हमले अधिक है लेकिन भारत जैसे उदार लोकतंत्र में पत्रकार और मीडीया पर सबसे अधिक कातिलाना हमले राजनीती और आर्थिक जगत से जुडे घराने ही करा रहे है। जहां जहां मीडीया का प्रभाव समाज में बढ रहा है वहां वहां भेद खोलने वाले और खोजी पत्रकारिता करने वाले साहसी लोगो पर हमले अधिक हो रहे है और यह सब राजनीती और आर्थिक वर्ग के अपराधीकरण से ही प्रमुखता से हो रहा है। संक्षिप्त में एक मीडीयाकर्मी और पत्रकार की हत्या समय और समाज के सत्य को दबाने के लिए ही है। पंजाब केसरी के लाला जगत नारायण तथा रमेशचंद्र की हत्या आंतक मे की गई तो लेखिका तसलीमा नसरीन को सच लिखने के लिए बांग्लादेश से निर्वाचित होना पडा तो चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संकीर्ण हिन्दुवादी ताकतो के आंतक से अपना देश छोडना पडा और इसी तरह १९७५ के आपातकाल में मीडीया को भारी प्रतिबंध झेलने पडे। यह सब प्रतिरोध और असहमति ही कलम के सिपाही को हिंसा का शिकार बनाती है और हरिशंकर परसाई को भी साम्प्रदायिकता के गुंडो से पिटवाती है। अभी मुम्बई के एक पत्रकार ज्योतिमय डे की हत्या और पिछले दिनो पाकिस्तान के एक पत्रकार सलीम शहजात की मौत तथा इसी तरह से आए दिन हत्या और हमलो की खबर आज हमें इस बात की याद दिलाती है कि हर लेखक और पत्रकार को सच लिखने की कीमत चुकानी पडेगी और जोखिम तो उठाने हीे होंगे। यह सच और झूंठ की मुठभेड है जो अनादिकाल से चली आ रही है तथा अपने अपने मोर्चे पर बोलकर अथवा लिखकर हर दौर में ईसा मसीह, सुकरात, लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, फै ज अहमद फैज, ज्योपाल सात्र्र जैसे कलम के सिपाही निरन्तर अपनी लेखनी की कीमत चुकाते आ रहे है और नई पीढी का मार्ग प्रशस्त करते जा रहे है। बहरहाल कलम के यह सभी सिपाही आने वाले समय में न्यायपालिका की तरह ही लोकतंत्र के सच्चे रक्षक हैं क्योंकि सच हमेशा विपक्ष में ही रहता है और शायर सिंह तथा सपूत सदैव लीक से हटकर ही चलता है। कलम का इतिहास इसीलिए शहीद ही लिखते हैं और कभी नही बिकते हैं।
पत्रकार को सच लिखने की कीमत चुकानी पडेगी और जोखिम तो उठाने हीे होंगे। यह सच और झूंठ की मुठभेड है जो अनादिकाल से चली आ रही है तथा अपने अपने मोर्चे पर बोलकर अथवा लिखकर हर दौर में ईसा मसीह, सुकरात, लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, फै ज अहमद फैज, ज्योपाल सात्र्र जैसे कलम के सिपाही निरन्तर अपनी लेखनी की ककीमत चुकाते आ रहे है और नई पीढी का मार्ग प्रशस्त करते जा रहे है।
जोखिम तो उठाने हीं होंगे
कलम के सिपाही को मैं इस दुनिया का सबसे अधिक ईमानदार और अनिवार्य व्यक्ति तथा विचार मानता हुं। क्योंकि वह सबके सुख-दु:ख लिखता हैै लेकिन अपनी कहानी कभी नही कहता। वह राष्ट्र की संस्क्रति और समाज बनाता है और इतिहास तथा समय के पैमाने को बदलता जाता हैं। ज्ञान की वंश परम्परा में साहित्यकार और पत्रकार दो जुडवां भाई है। जहां साहित्यकार शाश्वत की खोज करता है वहां पत्रकार वर्तमान का अन्वेषण करता है सूचना और प्रोद्योगिकी के युग से पहले भी वह स्वतंत्रता सेनानियो की जय बोलता ता तो आज भी वह दलित और पीडीत अवाम के साथ ही जीता है। यही कारण है कि शब्द कभी मरता नहीं है और शब्द स्वयं अपना रास्ता बनाता है। साहित्यकार और पत्रकार की जुगलबंदी अनंतकाल से आततायी और शोषण की व्यवस्था से लडती-मरती आई है तथा सामाजिक ,आर्थिक,सांस्क्रतिक और राजनैतिक असहमतियो के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की भूमिका अदा करती है। हमें याद है कि मनुष्य समाज और समय के कुरूक्षैत्र में जिस शब्द और वाणी का आधर सत्य और अहिंसा रही है वही कलम विश्वसनीय क्रांतिकारी तथा पतिवर्तन धर्मा मानी गई है। यानि कि उपनिवेशवाद से लेकर आज पूंजीवाद तक तानाशाही और लोकतंत्र में सच्ची कलम विपक्ष की आवाज बनकर ही चली है और दुनिया में आदि सभी देशो में दूसरे विश्वयुध्द के बाद जो क्रांति और बदलाव आया है उसमें आम जनता की आवाज को आगे बढाने का काम साहित्यकारो तथा पत्रकारो ने हीं किया है। लेकिन यूरोप में ओद्योगिक क्र ांति के बाद जब से छापाखना स्वतंत्रता का यह सूचना अभियान मनुष्य समाज के विकास का मुख्य हथियार बन गया है। हम भारत के संदर्भ में देखे तो पत्रकारिता का उदय अंग्रे-जो के भारत आने के पुर्व मुगलकाल में ही हो गया था। पहले प्रचार-प्रसार सीमित था लेकिन जैसे-जैसे तकनीक का और कागज का आविष्कार हुआ हमारे लोक जीवन में शब्द और वाणी के प्रभाव दलो,दिशाओ में फैलने लगे। साहित्य की इन सीमाओ को तोडने का काम अब पत्रकारिता कर रही है तथा सूचना और प्रोद्योगिकी की इस २१वीं में पत्रकारिता ने पारदर्शिता के नए रास्ते खेल दिए है। हमारी १८५७ की क्रांति में इस सूचना और समाचार की ताकत ने जबर्दस्त काम किया है लेकिन आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडीया ने देश और समाज में जो अग्रणी हस्तक्षेप और सवाल खडे किए है उसका परिणाम है कि मीडीया अब विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बाद चौथे स्तम्भ के रूप में खबरपालिका के रूप में स्थापित हो गया है। स्थितियों में बदलाव इस तरह से आया है कि पहले जहां सूचना का खुलासा करने वालो को भेदिया कहकर मार दिया जाता था, जहर का प्याला पिला दिया जाता था, हाथी के पांवो से कुचल दिया जाता था या फिर तोप के मुँह पर बांधकर उडा दिया जाता था वहां आज यह काम लोकतंत्र में राजनैतिक और आर्थिक गिरोहो तथा माफियाओं के द्वारा किया जाता है। यानि कि अपने हितो के खिलाफ बोलने और लिखने वाले को रास्ते का काँटा समझकर साफ किया जाता है। समझने की बात यह है कि आज जब राजनीती का अपराधीकरण हो गया है, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जिस तरह सत्ता-व्यवस्था में घुस गया है तथा आर्थिक शक्तियां जिस तरह समानान्तर सरकार जैसी संगठित बन गई है तब से सच की खोज करने वाला पत्रकार इन समाज विरोधी ताकतो कें निशाने पर आ गया है। आजादी के बाद और लोकतंत्र के विकास में जब पत्रकारिता और मीडीया एक सूचना उद्योग का रूप ले चुके है तब से शग्द और सूचना का सत्या ही सबसे अधिक हिंसा और अपराध का शिकार हो रहा है। आज भारत में ही विभिन्न भाषाओ की कोई ८० हजार पत्र-पत्रिकाएं आ रही हैं और कोई७०० से अधिक टीवी चैनल रात-दिन चल रहे है तब राजनैतिक और आर्थिक ताकतो की सारी शक्ति मीडीया को अपने निमंत्रण में रखने की हो रही है। यह शक्तिया साम,दाम दण्ड व भेद से मीडीया को अपने सहयोग में रखती है और अनावश्यक,बेसुरे,बाधक और खोजी पत्रकारो और लेखको को रास्ते अथवा मुनाफे की बाधा समझ कर मारती-डराती रहती है। शब्द और सत्य पर आक्रमण की यह कहानी १९९० के भूमंडलीकरण और खूले बाजार की अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक सक्रिय हो गई है। तानाशाही और अधिनाकवादी शासन व्यवस्थाओ में यह हमले अधिक है लेकिन भारत जैसे उदार लोकतंत्र में पत्रकार और मीडीया पर सबसे अधिक कातिलाना हमले राजनीती और आर्थिक जगत से जुडे घराने ही करा रहे है। जहां जहां मीडीया का प्रभाव समाज में बढ रहा है वहां वहां भेद खोलने वाले और खोजी पत्रकारिता करने वाले साहसी लोगो पर हमले अधिक हो रहे है और यह सब राजनीती और आर्थिक वर्ग के अपराधीकरण से ही प्रमुखता से हो रहा है। संक्षिप्त में एक मीडीयाकर्मी और पत्रकार की हत्या समय और समाज के सत्य को दबाने के लिए ही है। पंजाब केसरी के लाला जगत नारायण तथा रमेशचंद्र की हत्या आंतक मे की गई तो लेखिका तसलीमा नसरीन को सच लिखने के लिए बांग्लादेश से निर्वाचित होना पडा तो चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संकीर्ण हिन्दुवादी ताकतो के आंतक से अपना देश छोडना पडा और इसी तरह १९७५ के आपातकाल में मीडीया को भारी प्रतिबंध झेलने पडे। यह सब प्रतिरोध और असहमति ही कलम के सिपाही को हिंसा का शिकार बनाती है और हरिशंकर परसाई को भी साम्प्रदायिकता के गुंडो से पिटवाती है। अभी मुम्बई के एक पत्रकार ज्योतिमय डे की हत्या और पिछले दिनो पाकिस्तान के एक पत्रकार सलीम शहजात की मौत तथा इसी तरह से आए दिन हत्या और हमलो की खबर आज हमें इस बात की याद दिलाती है कि हर लेखक और पत्रकार को सच लिखने की कीमत चुकानी पडेगी और जोखिम तो उठाने हीे होंगे। यह सच और झूंठ की मुठभेड है जो अनादिकाल से चली आ रही है तथा अपने अपने मोर्चे पर बोलकर अथवा लिखकर हर दौर में ईसा मसीह, सुकरात, लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, फै ज अहमद फैज, ज्योपाल सात्र्र जैसे कलम के सिपाही निरन्तर अपनी लेखनी की कीमत चुकाते आ रहे है और नई पीढी का मार्ग प्रशस्त करते जा रहे है। बहरहाल कलम के यह सभी सिपाही आने वाले समय में न्यायपालिका की तरह ही लोकतंत्र के सच्चे रक्षक हैं क्योंकि सच हमेशा विपक्ष में ही रहता है और शायर सिंह तथा सपूत सदैव लीक से हटकर ही चलता है। कलम का इतिहास इसीलिए शहीद ही लिखते हैं और कभी नही बिकते हैं।
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